गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

"माँ",(कविता)


लेती नहीं दवाई "माँ",

जोड़े पाई-पाई "माँ"।
दुःख थे पर्वत, राई "माँ",
हारी नहीं लड़ाई "माँ"।

किस दुनियां से आई "माँ"।
इस दुनियां में सब मैले हैं,
जब भी कोई रिश्ता उधड़े,
दुनिया के सब रिश्ते ठंडे,
गरमागर्म रजाई "माँ" ।

लेकिन बरक़त लाई "माँ"।
करती है तुरपाई "माँ" ।

बाबू जी तनख़ा लाये बस,
नाम सभी हैं गुड़ से मीठे,
बाबूजी थे सख्त मगर ,
माखन और मलाई "माँ"।
बाबूजी के पाँव दबा कर

सब तीरथ हो आई "माँ"।
घर में चूल्हे मत बाँटो रे,
मां जी, मैया, माई, "माँ" ।

सभी साड़ियाँ छीज गई थीं,
रोती है लेकिन छुप-छुप कर,
मगर नहीं कह पाई "माँ" ।

देती रही दुहाई "माँ"।

साथ-साथ मुरझाई "माँ" ।
बाबूजी बीमार पड़े जब,

बड़े सब्र की जाई "माँ"।
"माँ" से घर, घर लगता है,
लड़ते-लड़ते, सहते-सहते,
रह गई एक तिहाई "माँ" ।

बेटी रहे ससुराल में खुश,
सब ज़ेवर दे आई "माँ"।
याद हमेशा आई "माँ"।
घर में घुली, समाई "माँ" ।

बेटे की कुर्सी है ऊँची,
दर्द बड़ा हो या छोटा हो,
पर उसकी ऊँचाई "माँ" ।

होती नहीं पराईll मां
घर के शगुन सभी "माँ" से,
है घर की शहनाई "माँ"।

सभी पराये हो जाते हैं,

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें